
भागलपुर में गंगा की बाढ़ अब केवल पानी की आपदा नहीं रही, बल्कि यह पीड़ा, बेबसी और अनदेखी की एक लहर बन चुकी है। गांव-घर डूब चुके हैं, और अब हजारों परिवार ऊंची सड़कों पर शरण लेकर जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जूझ रहे हैं।
बाढ़ पीड़ितों की सड़क पर ठहरी ज़िंदगी
बाढ़ से विस्थापित लोगों की दिनचर्या अब खुले आसमान के नीचे बीत रही है। कहीं टिन की छत के नीचे महिलाएं अपने छोटे बच्चों को सुला रही हैं, तो कहीं सड़क किनारे ईंटों के सहारे चूल्हा जलाकर बारिश में भीगी लकड़ियों से रोटियां सेंकी जा रही हैं। एक महिला की नम आंखें पूछती हैं— “अब आगे क्या?”
मवेशियों के लिए भी नहीं राहत
पुरुष अपने पशुओं के साथ सड़कों पर भटक रहे हैं। घर चलाने वाले ये मवेशी अब बोझ बनते जा रहे हैं क्योंकि न तो चारा है, न ही छांव। पीड़ित बताते हैं कि वे इन जानवरों को लेकर दूर-दराज तक भटक रहे हैं, लेकिन कोई व्यवस्था नहीं।
बचपन की मासूमियत भी बाढ़ में बह गई
बच्चे भी इस त्रासदी का शिकार हो गए हैं। न खेल हैं, न स्कूल, न किताबें। जहां पहले खिलखिलाहटें गूंजती थीं, अब वहां सन्नाटा और चिंता है। सड़कों पर उनका बचपन ठहर गया है।
प्रशासनिक लापरवाही और कागजी राहत
बाढ़ राहत शिविरों का कहीं कोई नामोनिशान नहीं है। प्रशासन केवल कागज़ी भरोसे दे रहा है। पीने का पानी, दवाइयां, शौचालय—कुछ भी सुलभ नहीं। हर साल गंगा चढ़ती है, घर बह जाते हैं, लोग बेघर होते हैं, लेकिन अफसरों की नींद अब भी नहीं खुलती।