
भागलपुर: गंगा की बाढ़ अब केवल जल स्तर का संकट नहीं, बल्कि इंसानियत और व्यवस्था की परीक्षा बन चुकी है। हर साल की तरह इस बार भी भागलपुर के दर्जनों गांव गंगा के उफनते पानी में डूब चुके हैं। मगर इस बार हालात और भी भयावह हैं — लोग न सिर्फ घर छोड़ने को मजबूर हैं, बल्कि अब सड़कों पर एक नई तरह की जिंदगी जी रहे हैं — जहां छत नहीं, चारपाई नहीं, और न ही कोई आसरा।
सड़कों पर घर, चूल्हे, और बेबसी
सैकड़ों परिवार अब सड़कों किनारे अस्थायी तंबुओं या टीन के नीचे दिन-रात गुज़ार रहे हैं। बारिश की बूँदों में भीगी लकड़ियों से रोटियां सेंकती महिलाएं, भूख से रोते बच्चे, और मवेशियों को लिए इधर-उधर भटकते पुरुष — यह दृश्य अब आम हो गया है।
“बचाने को कुछ नहीं रहा, अब बस जी रहे हैं…”, कहती है सुनीता देवी, जो अपने तीन बच्चों को लेकर सड़क के किनारे तिरपाल के नीचे रह रही हैं।
बगल में एक युवक अपने मवेशियों के लिए चारा ढूंढने में जुटा है — जो कभी उसकी जीविका थे, अब उसके लिए एक बोझ बनते जा रहे हैं।
बचपन से छिन गया बचपन
बाढ़ के कहर ने बच्चों का बचपन भी लील लिया है। न स्कूल बचे, न किताबें, न खेल का मैदान। कीचड़ और जलभराव के बीच वे बस एक अनिश्चित कल की ओर ताक रहे हैं।
प्रशासन की नाकामी, राहत सिर्फ कागजों में
स्थानीय लोगों का आरोप है कि प्रशासन अब भी कागज़ी राहत और आश्वासनों में उलझा हुआ है। न तो समुचित राहत शिविर हैं, न पीने के पानी की व्यवस्था। हर साल बाढ़ आती है, घर बहते हैं, मगर नीतियों और तैयारियों में कोई बदलाव नहीं होता है!